14 मुझे ऐसी थरथराहट और कंपकंपी लगी कि मेरी सब हड्डियां तक हिल उठीं।
15 तब एक आत्मा मेरे साम्हने से हो कर चली; और मेरी देह के रोएं खड़े हो गए।
16 वह चुपचाप ठहर गई और मैं उसकी आकृति को पहिचान न सका। परन्तु मेरी आंखों के साम्हने कोई रुप था; पहिले सन्नाटा छाया रहा, फिर मुझे एक शब्द सुन पड़ा,
17 क्या नाशमान मनुष्य ईश्वर से अधिक न्यायी होगा? क्या मनुष्य अपने सृजनहार से अधिक पवित्र हो सकता है?
18 देख, वह अपने सेवकों पर भरोसा नहीं रखता, और अपने स्वर्गदूतों को मूर्ख ठहराता है;
19 फिर जो मिट्टी के घरों में रहते हैं, और जिनकी नेव मिट्टी में डाली गई है, और जो पतंगे की नाईं पिस जाते हैं, उनकी क्या गणना।
20 वे भोर से सांझ तक नाश किए जाते हैं, वे सदा के लिये मिट जाते हैं, और कोई उनका विचार भी नहीं करता।