यशायाह 44:14-20 HHBD

14 वह देवदार को काटता वा वन के वृक्षों में से जाति जाति के बांजवृक्ष चुनकर सेवता है, वह एक तूस का वृक्ष लगाता है जो वर्षा का जल पाकर बढ़ता है।

15 तब वह मनुष्य के ईंधन के काम में आता है; वह उस में से कुछ सुलगाकर तापता है, वह उसको जलाकर रोटी बनाता है; उसी से वह देवता भी बनाकर उसको दण्डवत करता है; वह मूरत खुदवाकर उसके साम्हने प्रणाम करता है।

16 उसका एक भाग तो वह आग में जलाता और दूसरे भाग से मांस पकाकर खाता है, वह मांस भूनकर तृप्त होता; फिर तपाकर कहता है, अहा, मैं गर्म हो गया, मैं ने आग देखी है!

17 उसके बचे हुए भाग को लेकर वह एक देवता अर्थात एक मूरत खोदकर बनाता है; तब वह उसके साम्हने प्रणाम और दण्डवत करता और उस से प्रार्थना कर के कहता है, मुझे बचा ले, क्योंकि तू मेरा देवता है। वे कुछ नहीं जानते, न कुछ समझ रखते हैं;

18 क्योंकि उनकी आंखें ऐसी मून्दी गई हैं कि वे देख नहीं सकते; और उनकी बुद्धि ऐसी कि वे बूझ नहीं सकते।

19 कोई इस पर ध्यान नहीं करता, और न किसी को इतना ज्ञान वा समझ रहती है कि कह सके, उसका एक भाग तो मैं ने जला दिया और उसके कोयलों पर रोटी बनाईं; और मांस भूनकर खाया है; फिर क्या मैं उसके बचे हुए भाग को घिनौनी वस्तु बनाऊं? क्या मैं काठ को प्रणाम करूं?

20 वह राख खाता है; भरमाई हुई बुद्धि के कारण वह भटकाया गया है और वह न अपने को बचा सकता और न यह कह सकता है, क्या मेरे दाहिने हाथ में मिथ्या नहीं?